काव्य : अब छांव नहीं होती…….. डॉ. शालिनी श्रीवास्तव

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डाक टाइम्स न्यूज समाचार पत्र काव्य प्रकाशन………………… 
अब छांव नहीं होती,
जैसी हुआ करती थी,
तेज चिलचिलाती धूप में 
नीम और आम के पेड़ों के तले !
जब घने पेड़ों के बगिया के नीचे 
नर्म घास की चादर पर,
बच्चों का हुजूम खेला करता था,
तब आसमान से आग उगलता सूरज भी असहाय हुआ करता था!
अब शीतल पर जल नहीं मिलता, 
जैसा मिला करता था,
घरों के मटको में स्कूल, कॉलेज, 
दफ्तर और बेल के पेड़ों तले!
गर्मियों की छुट्टी में ताजा पेड़ों के फलों के साथ मीठी दही , शरबत 
और खेतों से तोड़े खीरे, ककड़ी की नमी 
याद आने ना देती थी 
क्या धूप , क्या गर्मी !
अब ठंडी सुबह और सांझ नहीं होती 
जैसी हुआ करती थी,
गुलाबी सूरज की आभा,
चह चहाते पक्षियों के गुनगुनाते 
स्वरों से सराबोर खुले आकाश के तले!
जब सांझ होते ही बच्चों की खिलखिलाहट 
गुंजायमान होती थी, 
और गूंजता था हर कोना 
नई नवेली दुल्हनों की घूंघट के पीछे से,
युवा सखियों के हंसी ठिठोली के बीच, 
वृद्ध हो चुकी ठहाकों के साथ! 
चमकती थी घरों की चौखट
 अपनों के घर आने की खुशी में,
 महकती थी सौंधी मिट्टी और 
चमेली की डालियां,
खनकती पानी की फुहार के बीच में!
अब कोई सुर नहीं सुनाई पड़ती 
जैसे सुनने को मिलती थी ,
काली चादर ओढे रात की गोद में, 
मध्यम रोशनी के बीच गुनगुनाती थी कई टोलिया नींद की आगोश में जाने से पहले!!

अब छांव नहीं होती……….

            डॉ. शालिनी श्रीवास्तव